Friday, October 17, 2008

गिरते-गिरते

गिरते-गिरते संभल गया मौसम ;
लीजिये फिर बदल गया मौसम।

फिर चिता से उठा धुआं बन कर;
हम तो समझे थे जल गया मौसम।

अब पलट कर कभी न आयेगा,
काफी आगे निकल गया मौसम।

ये हवाएं कहीं नहीं रुकतीं;
फिर भी कैसा बहल गया मौसम।

एक उड़ती हुई पतंग दिखी;
और मन में मचल गया मौसम।

10 comments:

  1. ये हवाएं कहीं नहीं रुकतीं;
    फिर भी कैसा बहल गया मौसम।

    ..बढ़िया लगी यह .बहुत खूब

    ReplyDelete
  2. फिर चिता से उठा धुआं बन कर;
    हम तो समझे थे जल गया मौसम।
    ' very appreciable creation, excellent words and thoughts"

    intjar ka lemha jub kabhee ktm na hua.....
    ashkon mey barf ke treh pighal gya mausam

    Regards

    ReplyDelete
  3. क्या बात है बहुत ही बढिया लिखा है आपने । लाजवाब

    ReplyDelete
  4. पास से गुजर कर ना बरसा बादल
    हाय देखो कितना बदल गया मौसम

    ReplyDelete
  5. गिरते-गिरते संभल गया मौसम ;
    लीजिये फिर बदल गया मौसम।
    -----------
    एक उड़ती हुई पतंग दिखी;
    और मन में मचल गया मौसम।

    kya khoob!

    ReplyDelete
  6. बहुत खूब कहा डॉ अमर ! हमेशा की तरह प्रभावशाली

    ReplyDelete
  7. फिर चिता से उठा धुआं बन कर;
    हम तो समझे थे जल गया मौसम।
    बहुत ही गहरे भाव, अति सुन्दर कविता.
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  8. एक उड़ती हुई पतंग दिखी;
    और मन में मचल गया मौसम।

    -बहुत जबरदस्त!!

    ReplyDelete