Saturday, July 11, 2009

मंज़िलों से परे

मंज़िलों से परे गुज़रती है 
जिंदगी कब, कहाँ ठहरती है

यूं तो हर ओर धूप बिखरी है 
मेरे आँगन में कम उतरती है 

एक गुड्डा मिला था कचरे में
एक गुड़िया दुलार करती है 

आँधियों की कहानियां सुन कर
एक चिड़िया हवा से डरती है 

मुट्ठियाँ बांधने से क्या होगा
रेत झरनी है, रेत झरती है

7 comments:

  1. मुट्ठियाँ बान्धने से क्या होगा
    ===

    बहुत खूब

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  2. यूँ तो हर ओर धूप बिखरी है
    मेरे आंगन में कम उतरती है..


    -बहुत जबरदस्त!! बेहतरीन !!

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  3. वाह। क्या बात है?

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  4. ek sundar abhiwyakti ...........atisundar

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  5. बेहद खूबसूरत डाक्टर साहिब !
    फिर से एक नाज़ुक सी ग़ज़ल :)
    सभी शेर बड़े ही मनभावन. कुछ मिसरों में शब्दों और भावों की जादूगरी !!
    "रेत झरनी है . . .
    जिन्दगी कब . . ."
    इस बार चकरा गयी हूँ की आप का हस्ताक्षर किसे कहूँ :) शायद यह :
    "एक गुड्डा मिला था . . . "

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  6. बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता

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