हमने यह सपना देखा था-
मानसरोवर की सीमाएं,
बढ़ते-बढ़ते कभी किसी दिन,
इस दलदल को भी छू लेंगी;
और हमारा यह दलदल भी,
मानसरोवर बन जाएगा।
जहाँ मुक्ति का कमल
खिलेगा निर्मल जल में।
मख्खी,मच्छर,जोंक –
तिरोहित हो जाएँगे;
सारे हँस चुगेंगे मोती;
सारी धरती-
उनका अभयारण्य बनेगी।
किन्तु हमारे
उस सपने का
यह कैसा परिणाम हुआ है!
दलदल की सीमाएं
मानसरोवर को ही
निगल गई हैं।
मख्खी,मच्छर,जोंक-
मुदित हैं, निष्कण्टक हैं।
लेकर तीर कमान
अहेरी घूम रहे हैं।
करना है आखेट
उन्हें सारे हंसों का;
तब ही तो अभिषेक
गिद्ध का कर पायेंगे ।
और स्वप्नदर्शी हम जैसे
जाने कितने!
भग्नह्रदय!स्तब्ध!
सभी कुछ देख रहे हैं।
मन में है संताप;
भावनायें आहत हैं।
तो क्या
वे सारे सपने
म्रृगमरीचिका थे?
क्या
यह दुर्गन्धित दलदल
ही परम सत्य है?
मन करता है
प्रश्न।
बुद्धि उत्तर देती है-
नहीं! नहीं!
यह बात नहीं है;
बात और है-
मानसरोवर की रक्षा
में चूक हुई है।
हँस चले थे
गिद्धों का आलिंगन करने;
फिर तो जो कुछ हुआ
सहज स्वाभाविक ही था।
परजीवी बगुले
जब हँसों की कतार में
घुस आये-
तो मानसरोवर लुटना ही था।
सच तो यह है-
सीमाओं के मिलने भर से
दलदल शुद्ध नहीं होते हैं;
उलटे मानसरोवर
दूषित हो जाते हैं।
बनी रहे अनवरत चौकसी,
होते रहें प्रयास निरन्तर;
तभी सुनिश्चित होगी
उनकी सतत सुरक्षा।
सच तो यह है-
हर दलदल के
निवासियों की-
अपनी पीड़ाएं होती हैं।
अपने ही सुख-दुख होते हैं;
अपनी क्रीड़ाएं होती हैं।
अपने परजीवी होते हैं;
अपनी सीमाएं होती हैं।
इन तथ्यों के सागर-मंथन
से ही वह अमृत मिलता है-
जो दलदल को मानसरोवर
कर देता है।–
मानसरोवर-
जिसमें
मुक्ति-कमल खिलता है।
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बहुत अच्छे भाव हैं।सुन्दर रचना है।
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