क्या सफर था! राह-ओ-मंजिल का निशाँ कोई न था
काफिला कोई न था; और कारवाँ कोई न था.
हमने ही अपने तसव्वुर से तुझे इक शक्ल दी.
हम न थे तो तू; तेरा नाम-ओ-निशाँ कोई न था.
कैसा जंगल था जहाँ वनवास पर भेजे गए
हर तरफ़ अशजार थे, साया वहाँ कोई न था.
दिल के दरवाज़े पे दस्तक बारहा होती रही
हमसे मिलने को मगर आया वहाँ कोई न था.
आईनों के शहर में हर सिम्त हम थे;सिर्फ़ हम.
हम चले आए तो हम जैसा वहाँ कोई न था.
Thursday, July 3, 2008
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