गीत कुछ उल्लास के मन बावरा गाता तो है ;
पर उसी पल कंठ भी स्वयमेव भर आता तो है।
छोड़ कर जिस विश्व को मैं भाग आया हूँ यहाँ
आज भी उस विश्व से मेरा कोई नाता तो है ।
ये घुटन, ये उलझनें, ये वंचना, ये वेदना;
इन सभी के बीच मन निर्दोष घबराता तो है ।
क्या न जाने भेद है जो प्यास यह बुझती नहीं;
नित्य प्रति ही नीर नयनों से बरस जाता तो है।
मानता हूँ अंश हूँ मैं भी व्यवस्था का ; मगर
इस व्यवस्था से ह्रदय विद्रोह कर जाता तो है।
शब्द में अनुवाद मेरी भावना का हो, न हो;
मौन भी मेरा ह्रदय के भेद कह जाता तो है ।
जिस दिशा में लक्ष्य या गंतव्य की सीमा नहीं
उस दिशा की और यह उन्माद ले जाता तो है।
उलझनों की झाडियाँ हैं; मुश्किलों के हैं पहाड़,
फ़िर भी इनके बीच से एक रास्ता जाता तो है।
हास में, परिहास में, आनंद में , उल्लास में,
सम्मिलित हूँ, किंतु फ़िर भी प्राण अकुलाता तो है।
Sunday, July 13, 2008
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अमर जी,आप अच्छा लिखते हैं।आप की कुछ रचनाएं पढ चुका हूँ।लेकिन साथ ही एक निवेदन है की आप का ब्लोग सही तरह से नही खुल रहा \ इसे जाँचें।
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