घने बनों में शहर का पता कहीं न मिला;
भरी थी नाव, मगर नाख़ुदा कहीं न मिला।
लिखी थी किसने ये उलझी सी ज़िन्दगी की ग़ज़ल!
कोई रदीफ़, कोई काफ़िया कहीं न मिला।
महँत बैठे थे काबिज़ सभी शिवालों में;
बहुत पुकारा मगर देवता कहीं न मिला।
सुना तो था कि इसी राह से वो गुज़रे थे,
तलाश करते रहे; नक्श-ए-पा कहीं न मिला।
सफ़र हयात का तनहा ही काट आये नदीम;
लगे जो अपना सा वो काफ़िला कहीं न मिला।
Thursday, July 31, 2008
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वाह!!
ReplyDeletebhut khub. ati uttam.
ReplyDeletekya baat hai. bhut badhiya.
ReplyDelete"महँत बैठे थे काबिज़ सभी शिवालों में;
ReplyDeleteबहुत पुकारा मगर देवता कहीं न मिला।"
बहुत सुंदर यथार्थ वर्णन !!