छटपटा रही है,
प्रसवासन्न चेतना।
पीड़ा के पल,
प्रतीक्षा के पल,
कितने लम्बे हैं?
पर अँधेरा छंटने लगा है।
कुछ साये
जमा हो रहे हैं
धुँधलके में।
उनके कन्धों पर
हल है या हथौड़ा;
गारे का तसला है,
या साहब का सूट्केस!
साफ़-साफ़ कुछ नहीं दिखता।
ये घुटन,ये उमस,
ये बेचैनी
क्यों है?
क्षितिज पर
ये बादल हैं,
या खादी के परदे!
जिन्होंने रोक रखा है रास्ता
गुनगुनी धूप का।
ये कसमसाहट कैसी है?
कैसा है ये असमंजस?
एक पल मन करता है
भरकी रजाई में
फिर से सो जाने को।
तो दूसरे ही पल
मचलता है
नहाने को
रोशनी के झरने में।
उठो भी!
परदे हटा दो।
खिड़कियां ही नहीं
दरवाज़े भी खोलो।
बाहर तो निकलो!
ओस भीगी दूब,
खिलखिलाते फूल,
बुलबुल के गीत,
और ताज़ा हवा-
सब तुम्हें बुलाते हैं।
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