हमारी शक्ल भी टी.वी पे आ जाती तो अच्छा था.
इधर भी बाढ़ इक चक्कर लगा जाती तो अच्छा था.
गिराते हम भी लाखों की मदद उड़ते जहाज़ों से;
और अपनी जेब में भी कुछ समा जाती तो अच्छा था.
इधर तो मुद्दतों से बाढ़ और भूकंप गायब हैं;
यहाँ भी ये घटा कुछ दिन को छा जाती तो अच्छा था.
हमारी भी तरफ़ नज़र-ऐ-करम करती कभी कुदरत;
पकी फ़सलों पे ओले ही गिरा जाती तो अच्छा था.
बदलते वक़्त के क़दमों की ये ख़ामोश सी आहट,
तुम्हें भी वक़्त रहते ही जगा जाती तो अच्छा था.
बहुत सटीक व्यंग्य है, व्यवस्था पर !
ReplyDeleteगिराते हम भी लाखों की मदद उड़ते जहाज़ों से;
ReplyDeleteऔर अपनी जेब में भी कुछ समा जाती तो अच्छा था.
कमाल का व्यंग है आप की रचना में...बहुत बहुत बधाई...
नीरज
हालात पर सोचने को मजबूर करती प्रसंग प्रधान रचना
ReplyDeleteवीनस केसरी