Wednesday, September 3, 2008

रात भर

रात भर सोने नहीं देते, जगाते हैं हमें;
कुछ पुराने ख़्वाब अक्सर याद आते हैं हमें.

नाख़ुदा बैठे हैं सब कश्ती का लंगर डाल कर,
और तूफ़ानों की बातों से डराते हैं हमें.

दाल-रोटी के सवालों का नहीं देते जवाब,
आक़बत की याद जो हर पल दिलाते हैं हमें.

डोरियाँ बारीक हैं इतनी कि दिखतीं भी नहीं;
और कठपुतलों के कठपुतले नचाते हैं हमें.

वक़्त देगा इस हिमाक़त का जवाब इनको नदीम;
राह के पत्थर भी अब चलना सिखाते हैं हमें.

4 comments:

  1. बेहतरीन...लाजवाब ग़ज़ल...हर शेर एक नगीने की तरह जड़ा है इस ग़ज़ल हार में...वाह...वा...
    नीरज

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  2. बहुत बेहतरीन रचना है।
    डोरियाँ बारीक हैं इतनी कि दिखती भी नहीं;
    और कठपुतलों के कठपुतले नचाते हैं हमें.

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