बदली के छाने से, मोरों के गाने से;
दहशत सी होती है, सावन के आने से।
गोबर भी बीनें तो सूखा कब मिलता है,
आँखें ही जलती हैं चूल्हा सुलगाने से।
खेतों में काम नहीं, घर में भी दाम नहीं,
शायद कुछ बात बने,शहर भाग जाने से।
सारे फुटपाथों पर पानी भर जाता है;
रात भर भटकते हैं बिस्तर छिन जाने से।
गावों से, शहरों से, घर से फ़ुटपाथों से,
हम तो निष्कासित हैं हर किसी ठिकाने से।
बहुत गजब!! बेहतरीन!!
ReplyDelete----------------
निवेदन
आप लिखते हैं, अपने ब्लॉग पर छापते हैं. आप चाहते हैं लोग आपको पढ़ें और आपको बतायें कि उनकी प्रतिक्रिया क्या है.
ऐसा ही सब चाहते हैं.
कृप्या दूसरों को पढ़ने और टिप्पणी कर अपनी प्रतिक्रिया देने में संकोच न करें.
हिन्दी चिट्ठाकारी को सुदृण बनाने एवं उसके प्रसार-प्रचार के लिए यह कदम अति महत्वपूर्ण है, इसमें अपना भरसक योगदान करें.
-समीर लाल
-उड़न तश्तरी
बहुत खूबसुरत अन्दाजे बयां .
ReplyDeleteBehtar hai. Nirantarta apekshit. Badhai.
ReplyDeletebahut uttam.
ReplyDeleteएक दिन में ही इतनी पोस्ट वाह भी क्या बात है
ReplyDeleteसुंदर रचना
वीनस केसरी
पहली बार आपके ब्लाग पर आया। अच्छा लिखा आपने।
ReplyDeleteबहुत बढिया लिखा है
ReplyDeleteकोई नही सोचता इनके बारे में ! अमर भाई !
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद नेट पर बेहतरीन हिंदी गजल पढ़ी। सच कहा है कि दहशत सी होती है सावन के आने से। आपकी गजल को रस्मअदायगी के लिए किसी टिप्पढ़ीं की जरूरत नहीं है।
ReplyDeleteगोबर भी बीनें तो सूखा कब मिलता है,
ReplyDeleteआँखें ही जलती हैं चूल्हा सुलगाने से।
खेतों में काम नहीं, घर में भी दाम नहीं,
शायद कुछ बात बने,शहर भाग जाने से।
सीधे दिल में उतर गये.......सीधे .....
अलग मिजाज़ साफ़ झलक
ReplyDeleteरहा है...सावन के आने पर
दहशत की बात, न जाने कितनी
ज़िंदगियों के सूखे सावन की कहानी
कह रही है.... सच के पक्ष में अडिग
खड़ी है आपकी यह प्रस्तुति....बधाई.
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