Wednesday, September 24, 2008

चले गाँव से

चले गाँव से बस में बैठे , और शहर तक आए जी
चौराहे पर खड़े हैं, शायद काम कोई मिल जाए जी


मांगी एक सौ बीस मजूरी, सुबह सवेरे सात बजे,
सूरज चढ़ा और हम उतरे , लो सत्तर तक आए जी


दिया फावड़ा-तसला अपने घर ले जा कर मालिक ने,
सर पर रहा सवार जाने क्या-क्या नाच नचाये जी


कड़ी धूप में रहे खोदते पत्थर सी मिट्टी दिन भर,
दो पल रुक कर बीड़ी पी तो कामचोर कहलाये जी


कल क्या होगा, काम मिलेगा या कि नहीं अल्ला जाने;
जिंदा रहने की कोशिश में जीवन घटता जाए जी।

8 comments:

  1. अमर ज्योति जी, रचना पढ़ कर आनंद हम को आया है
    इसी लिए टिप्पणी करनें को, मन अपना ललचाया है।

    मजदूरों की व्यथा कही, आपने सुन्दर शब्दों में,
    सच है दुनिया में गरीब को सबनें सदा सताया है।

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  2. अच्‍छा शब्‍दचित्र। असंगठित मजदूरों की जिंदगी को सटीक ढंग से उकेरा है।

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  3. एक दिहाडी मजदूर का बेहतरीन शब्दचित्रण किया है आपने ! और यह सच्चाई सुबह आठ बजे किसी भी चौराहे पर जाकर कोई भी महसूस कर सकता है ! आपका कार्य इन गरीबों का बहुत बड़ा हितसाधक है ! यहाँ कोई नही सोचता इनके बारे में !

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  4. कड़ी धूप में रहे खोदते पत्थर सी मिट्टी दिन भर,
    दो पल रुक कर बीड़ी पी तो कामचोर कहलाये जी।


    कल क्या होगा, काम मिलेगा या कि नहीं अल्ला जाने;
    जिंदा रहने की कोशिश में जीवन कटता जाए जी।


    सबसे पहले इस दिशा में सोचने के लिए आपको साधुवाद....दूजे बहुत खूब लिखा है आपने....

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  5. एक मजदुर की व्यथा आप ने सही कही हे, हम भी पेसे कम ओर काम ज्यादा चाहते हे...सच हमीं गरीबो को सताते हे ओर फ़िर बाते भी बडी बडी करते हे....
    धन्यवाद

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  6. अद्भुत सोच-क्या बात है!! बेहतरीन रचना!

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  7. कितनी गहरी अभिव्यक्ती!!

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  8. मान्यवर,

    यह व्यथा जो लगभग हर देश अकी है, भारतीय दिहाड़ी मज़दूर या अमेरिका में डे लेबरर का बिल्ला लगाये हुए लोग--- आपने बहुत सटीक लिखा है.

    साधुवाद

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