Wednesday, December 31, 2008
Monday, December 29, 2008
राजा का आसन
कहीं किसी ने सच बोला!
इस वासंती मौसम में,
किसने ये पतझर घोला?
दानिशवर ख़ामोश हुए;
जब मजनूं ने मुंह खोला।
जम कर लड़ा लुटेरों से
जिसका ख़ाली था झोला।
सारा जंगल सूखा है;
तू इक चिंगारी तो ला।
Friday, December 19, 2008
फूल अकेला
प्यासे को तो क़तरा-क़तरा सागर जैसा लगता है।
दीवारों का ये जंगल जिसमें सन्नाटा पसरा है-
जिस दिन तुम आ जाते हो, सचमुच घर जैसा लगता है।
उसका चरचा हो तो मन में लहरें उठने लगती हैं;
उसका नाम झील में गिरते कंकर जैसा लगता है।
छाया की उम्मीद करें क्या गमलों की हरियाली से;
नया शहर बूढ़ी आंखों को बंजर जैसा लगता है।
इस निज़ाम में अहल-ऐ-जुनूं कुछ कर गुज़रें तो कर गुज़रें;
अहल-ऐ-ख़िरद की बातें सुन कर तो डर जैसा लगता है।
Wednesday, December 17, 2008
दिल ने यूं तो
फिर भी तुम बारहा याद आए बहुत।
दर्द का भी एहतराम पूरा किया;
खिलखिलाए बहुत, मुस्कराए बहुत।
खण्डहरों में कभी कोई ठहरा नहीं;
पर इन्हें देखने लोग आए बहुत।
हम तो बदनाम मयक़श थे, चलते रहे;
वाइज़ों के क़दम डगमगाए बहुत।
धूप से यूं न डर; घर से बाहर निकल,
राह में हैं दरख़्तों के साए बहुत।
Thursday, November 27, 2008
तेरी ज़िद
मन बोले संसार निहारूं।
पानी, धूप, अनाज जुटा लूं;
फिर तेरा सिंगार निहारूं।
दाल खदकती, सिकती रोटी,
इनमें ही करतार निहारूं।
बचपन की निर्दोष हँसी को ,
एक नहीं , सौ बार निहारूं।
तेज़ धार औ भंवर न देखूं,
मैं नदिया के पार निहारूं.
Monday, November 24, 2008
सपनों का
सूरज की आँख खुल गई, बिस्तर समेटिये।
दे दीजियेगा बाद में औरों को मशविरा;
फ़िलहाल अपना गिरता हुआ घर समेटिये।
फूलों की बात समझें, कहाँ हैं वो देवता?
ये दानवों का दौर है; पत्थर समेटिये।
जब से गए हैं आप, बिखर सा गया हूँ मैं,
खो जाउंगा हवाओं में, आकर समेटिये।
कुछ आँधियों ने कर दिया जिसको तितर-बितर,
उठिए 'नदीम' साब! वो लश्कर समेटिये.
Wednesday, November 12, 2008
धूल को चंदन
मरघटों में ज़िंदगी की दास्तां कैसे लिखें?
खेत में बचपन से खुरपी फावड़े से खेलती,
उँगलियों से खू़न छलके, मेंहदियां कैसे लिखें?
हर गली से आ रही हो जब धमाकों की सदा,
बाँसुरी कैसे लिखें; शहनाइयां कैसे लिखें?
कुछ मेहरबानों के हाथों कल ये बस्ती जल गई;
इस धुएँ को घर के चूल्हे का धुआँ कैसे लिखें?
दूर तक काँटे ही काँटे, फल नहीं, साया नहीं।
इन बबूलों को भला अमराइयां कैसे लिखें
रहज़नों से तेरी हमदर्दी का चरचा आम है;
मीर जाफर! तुझको मीर-ऐ-कारवाँ कैसे लिखें?
Monday, November 10, 2008
सरदी में
जीवन की हर शीत-लहर में बार-बार याद आई अम्मा।
भैय्या से खटपट, अब्बू की डाँट-डपट, जिज्जी से झंझट,
दिन भर की हर टूट-फूट की करती थी भरपाई अम्मा।
कभी शाम को ट्यूशन पढ़ कर घर आने में देर हुई तो,
चौके से देहरी तक कैसी फिरती थी बौराई अम्मा।
भूला नहीं मोमजामे का रेनकोट हाथों से सिलना;
और सर्दियों में स्वेटर पर बिल्ली की बुनवाई अम्मा।
बासी रोटी सेंक-चुपड़ कर उसे पराठा कर देती थी,
कैसे थे अभाव और क्या-क्या करती थी चतुराई अम्मा।
(आलोक श्रीवास्तव की ज़मीन और बिटिया स्तुति की
ज़िद पर)
Saturday, November 1, 2008
जर्जर सा तन
थका-थका मन।
दुःख तो सहचर;
सुख से अनबन।
बरस न पाये;
घुमड़े सावन ।
सबके मन में
कोई उलझन।
कौन सुनेगा
किसका क्रंदन?
हँसते अधर;
बिलखता सा मन।
ऐसा जीवन
भी क्या जीवन!
Monday, October 27, 2008
Saturday, October 18, 2008
सिमटने की हक़ीक़त
सिमटने की हक़ीकत से बंधा विस्तार का सपना;
खुली आँखों से सब देखा किये बाज़ार का सपना।
समंदर के अँधेरों में हुईं गुम कश्तियां कितनी,
मगर डूबा नहीं है-उस तरफ़, उस पार का सपना।
थकूँ तो झाँकता हूं ऊधमी बच्चों की आँखों में;
वहां ज़िन्दा है अब तक ज़िन्दगी का,प्यार का सपना।
जो रोटी के झमेलों से मिली फ़ुरसत तो देखेंगे
किसी दिन हम भी ज़ुल्फ़ों का,लब-ओ-रुख़सार का सपना।
जुनूं है, जोश है, या हौसला है; क्या कहें इसको!
थके-माँदे कदम और आँख में रफ़्तार का सपना।
Friday, October 17, 2008
गिरते-गिरते
लीजिये फिर बदल गया मौसम।
फिर चिता से उठा धुआं बन कर;
हम तो समझे थे जल गया मौसम।
अब पलट कर कभी न आयेगा,
काफी आगे निकल गया मौसम।
ये हवाएं कहीं नहीं रुकतीं;
फिर भी कैसा बहल गया मौसम।
एक उड़ती हुई पतंग दिखी;
और मन में मचल गया मौसम।
Wednesday, October 8, 2008
राम जी से
फिर कोई बस्ती जलानी चाहिए।
उसकी हमदर्दी के झांसे में न आ;
मीडिया को तो कहानी चाहिए।
तू अधर की प्यास चुम्बन से बुझा;
मेरे खेतों को तो पानी चाहिए।
काफिला भटका है रेगिस्तान में;
उनको दरिया की रवानी चाहिए।
लंपटों के दूत हैं सारे कहार,
अब तो डोली ख़ुद उठानी चाहिए।
Wednesday, October 1, 2008
ख़ूब मचलने की
ख़ूब मचलने की कोशिश कर;
और उबलने की कोशिश कर।
व्याख्याएं मत कर दुनिया की;
इसे बदलने की कोशिश कर।
कोई नहीं रुकेगा प्यारे;
तू ही चलने की कोशिश कर।
इंतज़ार मत कर सूरज का;
ख़ुद ही जलने की कोशिश कर।
गिरने पर शर्मिन्दा मत हो;
सिर्फ़ सँभलने की कोशिश कर।
इन काँटों से डरना कैसा!
इन्हें मसलने की कोशिश कर।
Saturday, September 27, 2008
हौसलों की उड़ान
छोटा सा आसमान क्या कहिये !!
दर्द से कौन अजनबी है यहाँ!
दर्द की दास्तान क्या कहिये।
उनके आने का आज चरचा है।
और मेरा मकान क्या कहिये!
बेच डाले चमन के गुल-बूटे;
वाह रे बाग़बान क्या कहिये!
जिंदगी के कठिन सफर में नदीम,
हर क़दम इम्तिहान, क्या कहिये!
Wednesday, September 24, 2008
चले गाँव से
चौराहे पर खड़े हैं, शायद काम कोई मिल जाए जी।
मांगी एक सौ बीस मजूरी, सुबह सवेरे सात बजे,
सूरज चढ़ा और हम उतरे , लो सत्तर तक आए जी।
दिया फावड़ा-तसला अपने घर ले जा कर मालिक ने,
सर पर रहा सवार न जाने क्या-क्या नाच नचाये जी।
कड़ी धूप में रहे खोदते पत्थर सी मिट्टी दिन भर,
दो पल रुक कर बीड़ी पी तो कामचोर कहलाये जी।
कल क्या होगा, काम मिलेगा या कि नहीं अल्ला जाने;
जिंदा रहने की कोशिश में जीवन घटता जाए जी।
Tuesday, September 23, 2008
टूटते ही गये
निष्प्रभावी रही हर व्यथा की कथा, कौन कहता है प्रारब्ध बहरा नहीं।
जब तलक चुटकुले हम सुनाते रहे, लोग हँसते रहे, मुस्कराते रहे;
दर्द के गीत की तो प्रथम पंक्ति के अंत तक भी कोई व्यक्ति ठहरा नहीं।
हाज़िरी पाठशाला में पूरी रही, फिर भी अपनी पढ़ाई अधूरी रही;
आचरण के पहाड़े तो पूरे रटे , मीठे झूठों का सीखा ककहरा नहीं।
पतझरों से तुम्हारा ये अनुबंध है, इसलिए ही तो फूलों पे प्रतिबन्ध है;
पर हवाओं के पंखों पे उड़ जायेंगी, खुशबुओं पर तो कोई भी पहरा नहीं।
बोझ से दब के कंधे तो झुक जायेंगे, साँस फूली तो कुछ देर रुक जायेंगे,
लौट जाएँ मगर, छोड़ कर ये सफ़र, घाव कोई भी इतना तो गहरा नहीं।
थक के ऐसे न बैठो, उठो चल पड़ो, अपनी आंखों के सपनों को बुझने न दो,
यूं अकेले नहीं क़ाफिले में चलो, काफ़िलों से परे कोई सहरा नहीं।
Saturday, September 13, 2008
राह में जब
देर तक आसमान को देखा।
मैनें टूटे हुए परों को नहीं ,
अपने मन की उड़ान को देखा।
वो मेरे घर कभी नहीं आया,
जिसने मेरे मकान को देखा।
जल गया रोम और नीरो ने
सिर्फ़ मुरली की तान को देखा।
तीर कातिल था; ये तो जाहिर है,
क्या किसी ने कमान को देखा?
टूटते सपनों की
टूटते सपनों की ताबीर से बातें करिये;
ज़िन्दगी भर उसी तसवीर से बातें करिये।
कैसा सन्नाटा है ज़िन्दान की तनहाई में,
तौक़ से, पाँव की ज़न्जीर से बातें करिये।
सर उठाने लगे हिटलर के नवासों के गिरोह,
अब कलम से नहीं, शमशीर से बातें करिये।
दिल के बहलाने को तिनकों से उलझते रहिये,
बात करनी है तो शहतीर से बातें करिये।
पाँव के छाले मुक़द्दर को सदा देते हैं;
हौसला कहता है तदबीर से बातें करिये।
Sunday, September 7, 2008
बदली के छाने से
बदली के छाने से, मोरों के गाने से;
दहशत सी होती है, सावन के आने से।
गोबर भी बीनें तो सूखा कब मिलता है,
आँखें ही जलती हैं चूल्हा सुलगाने से।
खेतों में काम नहीं, घर में भी दाम नहीं,
शायद कुछ बात बने,शहर भाग जाने से।
सारे फुटपाथों पर पानी भर जाता है;
रात भर भटकते हैं बिस्तर छिन जाने से।
गावों से, शहरों से, घर से फ़ुटपाथों से,
हम तो निष्कासित हैं हर किसी ठिकाने से।
Thursday, September 4, 2008
किसे फ़ुरसत
ज़रा फ़ुटपाथ पर सोए हज़ारों को गिना जाये।
महकते गेसुओं के पेच-ओ-ख़म गिनने से क्या होगा;
सड़क पर घूमते बेरोज़गारो को गिना जाये।
वो मज़हब हो, के सूबा हो, बहाना नफ़रतों का है;
वतन में दिन-ब-दिन उठती दिवारों को गिना जाये।
हमें मालूम है ‘बिलियॉनियर` हैं मुल्क में कितने;
चलो अब भूखे-प्यासे कामगारों को गिना जाये।
कोई कहता है ‘गाँधी का वतन’ तो जी में आता है,
कि गाँधी की अहिंसा के शिकारों को गिना जाये।
Wednesday, September 3, 2008
रात भर
कुछ पुराने ख़्वाब अक्सर याद आते हैं हमें.
नाख़ुदा बैठे हैं सब कश्ती का लंगर डाल कर,
और तूफ़ानों की बातों से डराते हैं हमें.
दाल-रोटी के सवालों का नहीं देते जवाब,
आक़बत की याद जो हर पल दिलाते हैं हमें.
डोरियाँ बारीक हैं इतनी कि दिखतीं भी नहीं;
और कठपुतलों के कठपुतले नचाते हैं हमें.
वक़्त देगा इस हिमाक़त का जवाब इनको नदीम;
राह के पत्थर भी अब चलना सिखाते हैं हमें.
Monday, September 1, 2008
हमारी शक्ल
हमारी शक्ल भी टी.वी पे आ जाती तो अच्छा था.
इधर भी बाढ़ इक चक्कर लगा जाती तो अच्छा था.
गिराते हम भी लाखों की मदद उड़ते जहाज़ों से;
और अपनी जेब में भी कुछ समा जाती तो अच्छा था.
इधर तो मुद्दतों से बाढ़ और भूकंप गायब हैं;
यहाँ भी ये घटा कुछ दिन को छा जाती तो अच्छा था.
हमारी भी तरफ़ नज़र-ऐ-करम करती कभी कुदरत;
पकी फ़सलों पे ओले ही गिरा जाती तो अच्छा था.
बदलते वक़्त के क़दमों की ये ख़ामोश सी आहट,
तुम्हें भी वक़्त रहते ही जगा जाती तो अच्छा था.
बचपन से अलबेले
शायद तभी अकेले हो तुम.
खोखो, कंचे, और कबड्डी,
कभी सड़क पर खेले हो तुम?
इस जर्मन शेफर्ड सरीखे
पाले कई झमेले हो तुम.
टी.वी. पर फुटबाल देख कर,
मन ही मन में 'पेले' हो तुम .
रोमानी पीड़ा के शायर,
कब कितना दुख झेले हो तुम?
Saturday, August 30, 2008
बाग़ों में
बाग़ों में प्लॉट कट गए, अमराइयाँ कहाँ!
पूरा बरस ही जेठ है, पुरवाइयाँ कहाँ!
उस डबडबाई आँख मे उतरे तो खो गए;
सारे समंदरों में वो गहराइयाँ कहाँ!
सरगम का, सुर का, राग का, चरचा न कीजिये;
‘डी जे’ की धूमधाम है; शहनाइयाँ कहाँ!
क़ुरबानियों में कौन सी शोहरत बची है अब?
और बेवफ़ाइयों में भी रुसवाइयाँ कहाँ!
कमरे से एक बार तो बाहर निकल नदीम;
तनहा दिलों की भीड़ है, तनहाइयाँ कहाँ!
Saturday, August 23, 2008
घर में
अपना दर्द छुपाए रक्खा; तो किस पर एहसान किया?
दुखियारों से मिल कर दुख से लड़ते तो कुछ बात भी थी;
कॉकरोच सा जीवन जीकर, कहते हो बलिदान किया!
दैर-ओ-हरम वालों का पेशा फ़िक्र-ए-आक़बत है तो हो;
हमने तो चूल्हे को ख़ुदा और रोटी को ईमान किया।
किशन-कन्हैया गुटका खा कर जूते पॉलिश करता है;
पर तुमने मन्दिर में जाकर माखन-मिसरी दान किया।
मज़हब,ज़ात,मुकद्दर,मंदिर-मस्जिद,जप-तप,हज,तीरथ,
दानाओं ने नादानों की उलझन का सामान किया।
कड़ी धूप थी; रस्ते में कुछ सायेदार दरख़्त मिले;
साथ नहीं चल पाए फिर भी कुछ तो सफ़र आसान किया।
Friday, August 22, 2008
सुबह-सवेरे
किलो-दो किलो नाज रोज़ ले आती है रज्जो की अम्मा।
उसमें से भी थोड़ा सा लाला जी की दुकान पर दे कर,
नमक, तेल, आलू, थोड़ा गुड़ लाती है रज्जो की अम्मा।
रज्जो हुई सयानी, कैसे पार लगेगी, सोच-सोच कर,
रात-रात भर जगती ही रह जाती है रज्जो की अम्मा।
अगले साल पेंशन बँधवा देंगे, कहते हैं प्रधान जी;
उनके घर भी न्यार-फूस कर आती है रज्जो की अम्मा।
रज्जो के बाबू थे, बुग्गी थी, तब कितना सुख था; अक्सर,
बीते कल की यादों में खो जाती है रज्जो की अम्मा।
Tuesday, August 19, 2008
माना कड़ी धूप है
सूखे हुए बबूलों से ही, चले मांगने छाया क्या?
सुना है उनके घर पर कोई साहित्यिक आयोजन है;
हम तो जाहिल ठहरे लेकिन, तुम्हें निमंत्रण आया क्या?
बच्चा एक तुम्हारे घर भी कचरा लेने आता है;
कभी किसी दिन, उसके सर पर, तुमने हाथ फिराया क्या?
बिटिया है बीमार गाँव में, लिक्खा है-घर आ जाओ;
कैसे जायें! घर जाने में, लगता नहीं किराया क्या?
ऐसे गुमसुम क्यों बैठे हो! आओ, हमसे बात करो।
यहाँ सभी तुम जैसे ही हैं; अपना कौन, पराया क्या?
Monday, August 18, 2008
इक तरफ़ तो
नाख़ुदाओं का भी तूफ़ाँ को इशारा है बहुत।
प्यास बुझने की तुम्हें उम्मीद जिस सागर से है,
कितनी नदियां पी चुका है;फिर भी खारा है बहुत।
बादबानी कश्तियाँ खायें हवाओं का फ़रेब;
हमको अपने बाज़ुओं का ही सहारा है बहुत।
ख़ुद को वो समझे थे लेनिन और फ़रमाया किये,
चेतना-वंचित यहां का सर्वहारा है बहुत।
भीड़ में तो ख़ैर निष्ठुरता का अभिनय ही रहा;
सच कहूं! एकांत में, तुमको पुकारा है बहुत।
Saturday, August 16, 2008
फूल किसी जंगल का
क़तरा है बादल का आँसू।
सदियों की सूखी आँखों से,
आज अचानक छलका आँसू।
मुस्कानों के सारे परदों
के पीछे से झलका आँसू।
बेमन से घर छोड़ा शायद;
थमा रहा, फिर ढलका आँसू।
रुका-रुका सा खोज रहा है-
छोर किसी आँचल का आँसू।
Thursday, August 14, 2008
रवाँ हों अश्क
चिता की लौ में नई ज़िन्दगी नज़र आये।
धुएं से यूं न डर ए दोस्त! बहुत मुमकिन है,
धुएं के पार कोई रौशनी नज़र आये।
क़दम-क़दम पे फ़रिश्तों की भीड़ मिलती है;
कभी, कहीं तो कोई आदमी नज़र आये।
समदरों ने भला किसकी प्यास को सींचा!
उन्हें कहाँ से मेरी तश्नगी नज़र आये।
ये काला चश्मा ही परदा मेरे वजूद का है;
हटे तो सबको मेरी बेक़सी नज़र आये।
Wednesday, August 13, 2008
कभी हिंदुत्व
ये लगता है कि जैसे हैं सभी अक़वाम ख़तरे में।
उधर फ़तवा कि खेले सानिया सलवार में टेनिस;
ज़मीनों के लिये हैं, इस तरफ़ श्री राम ख़तरे मे।
दहाड़े रात भर माइक पे, देवी-जागरण वाले;
मुहल्ले भर के गोया नींद और आराम ख़तरे में।
ये 'ग्लोबल कारपोरेटों' का हमला है,पड़ेगा ही-
मुहब्बत का, वफ़ा का, दोस्ती का नाम ख़तरे में।
पुजेंगे गोडसे और गोलवरकर, फिर तो आयेगा
कबीर ओ गौतम ओ नानक का हर पैग़ाम खतरे में।
Monday, August 11, 2008
कहां गए
कड़ा सवाल है, इसका जवाब मत पूछो।
अकेले मेरे दुखों की कहानियां छोड़ो;
समंदरों में लहर का हिसाब मत पूछो।
मुबारकों की रवायत है कामयाबी पर,
कि कौन कैसे हुआ कामयाब, मत पूछो।
जो हर कदम पे मेरे साथ है, वो तनहाई
मेरा नसीब है या इंतख़ाब, मत पूछो।
अमावसों में चराग़ों का इंतज़ाम करो;
कहां फ़रार हुआ आफ़ताब मत पूछो।
Saturday, August 9, 2008
पसीने के
पसीने के, धुएं के,जंगलों में रास्ता खोजो;
अमावस के अँधेरों में कभी सूरज नहीं दिखता;
दियों के,जुगनुओं के हौसलों में रास्ता खोजो।
ये माना हर नदी नीले समंदर तक नहीं जाती;
मगर ये क्या!कि इन अँधे कुओं में रास्ता खोजो।
पुराने नाख़ुदाओं के भरोसे डूबना तय है;
ख़ुद अपने बाज़ुओं की कोशिशों में रास्ता खोजो।
न कोई नक्श-ए-पा है,और न संग-ए-मील है कोई;
मुसाफ़िर गुलशनों के, ख़ुशबुओं में रास्ता खोजो।
Friday, August 8, 2008
जो कुछ भी
इसी जनम में जी ले, मर ले।
अवतारों की राह देख मत;
छीन-झपट कर झोली भर ले।
सीख तैरना अपने बल पर;
डूबेगी यह नाव; उतर ले।
सच में लगा झूठ के पहिये;
ये बोझा मत अपने सर ले।
वेद-क़ुरानों के बदले में
गिनती के ‘ढाई आखर’ ले।
Thursday, August 7, 2008
अबकी बार
खील, मिठाई, चप्पल, सब लेकर आएँगे मेरे पापा।
दादी का टूटा चश्मा और फटा हुआ चुन्नू का जूता,
दोनों की एक साथ मरम्मत करवाएँगे मेरे पापा।
अम्मा की धोती तो अभी नई है; होली पर आई थी;
उसको तो बस बातों में ही टरकाएंगे मेरे पापा।
जिज्जी के चेहरे की छोड़ो, उसकी आंखें तक पीली हैं;
उसका भी इलाज मंतर से करवाएँगे मेरे पापा।
बड़की हुई सयानी, उसकी शादी का क्या सोच रहे हो?
दादी पूछेंगी; और उनसे कतराएंगे मेरे पापा।
बौहरे जी के अभी सात सौ रुपये देने को बाकी हैं;
अम्मा याद दिलाएगी और हकलाएंगे मेरे पापा।
Wednesday, August 6, 2008
कह गया था
वो कभी लौट कर नहीं आया।
क़ाफिले में तमाम लोग थे पर,
बस वही हमसफ़र नहीं आया।
रेल तो टर्मिनस पे आ पहुंची;
किंतु मेरा शहर नहीं आया।
ऐसा क्यों लगता है कि जैसे वो,
आ तो सकता था, पर नहीं आया।
एक मेरी बिसात क्या, सुख तो
जाने कितनों के घर नहीं आया।
Tuesday, August 5, 2008
बचपन
ये उजियारे जैसा बचपन।
प्यासी आंखें, सूखा चेहरा,
झील किनारे जैसा बचपन।
मत्था टेके; रोटी मांगे;
ये गुरुद्वारे जैसा बचपन
काँटे पहने भटक रहा है,
ये गुब्बारे जैसा बचपन।
कचरा बीन रहा सड़कों पर
चन्दा-तारे जैसा बचपन।
Monday, August 4, 2008
रिक्शे वाले
सुख-दुख की गपशप से दिल बहला जाते हैं रिक्शे वाले।
जेठ माह की दोपहरी में जब कर्फ़्यू सा लग जाता है,
अमलतास की छाया में सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले।
गंगा-पार, बदायूं, छपरा, भागलपुर, और बर्दवान के,
कितने किस्से आपस में दोहरा जाते हैं रिक्शे वाले।
रिक्शा धोना, कुछ पल सोना, बीड़ी पीना, कपड़े सीना-
कितने सारे काम यहां निपटा जाते हैं रिक्शे वाले।
सड़कों के गड्ढे, टायर के बढ़ते दाम, पुलिस की गाली,
सब पर अपनी-अपनी राय बता जाते हैं रिक्शे वाले।
मिले सवारी तो झटपट पैसे तय कर के चल पड़ते हैं;
वरना दो-दो घण्टे यहीं बिता जाते हैं रिक्शे वाले।
Sunday, August 3, 2008
दाल-रोटी
दिन गुज़रते हैं दाल-रोटी से।
दाल रोटी न हो, तो जग सूना ;
जीते-मरते हैं दाल-रोटी से।
इतने हथियार,इतने बम-गोले!
कितना डरते हैं दाल-रोटी से!
कैसे अचरज की बात है यारो!
लोग मरते हैं दाल-रोटी से।
जो न सदियों में हो सका,पल में
कर गुज़रते हैं दाल-रोटी से।
लोग दीवाने हो गये हैं नदीम,
खेल करते हैं दाल-रोटी से।
Thursday, July 31, 2008
घने बनों में
भरी थी नाव, मगर नाख़ुदा कहीं न मिला।
लिखी थी किसने ये उलझी सी ज़िन्दगी की ग़ज़ल!
कोई रदीफ़, कोई काफ़िया कहीं न मिला।
महँत बैठे थे काबिज़ सभी शिवालों में;
बहुत पुकारा मगर देवता कहीं न मिला।
सुना तो था कि इसी राह से वो गुज़रे थे,
तलाश करते रहे; नक्श-ए-पा कहीं न मिला।
सफ़र हयात का तनहा ही काट आये नदीम;
लगे जो अपना सा वो काफ़िला कहीं न मिला।
Tuesday, July 29, 2008
मानिये मत
देखिये! है रौशनी उस पार बंधु।
रक्त का झरना बहा सर से तो क्या,
ज़ुल्म की भी हिल चली दीवार बंधु।
सुख की घड़ियां उंगलियों पर गिन चुके,
कैसे नापें दुख का पारावार बंधु।
तुम तो हो शम्बूक ख़ुद ही सोच लो,
तुमको क्या देगा कोई अवतार बंधु।
मेरे स्वप्नों पर हँसो मत; देखना,
स्वप्न ये होंगे सभी साकार बंधु।
यही आँख थी
इसी ख़ुश्क आँख की रेत से ये घटा कहाँ से बरस गई!
ये थी किसकी याद जो टूट कर मेरी ज़िन्दगी पे बिखर गई!
मेरे दिल की ज़र्द सी दूब भी जो कदम-कदम पे सरस गई।
मेरी तश्नगी भी कमाल थी; जहां एक बूंद मुहाल थी;
बही किस दिशा से ये नम हवा, मेरी तश्नगी भी झुलस गई!
वो ग़ज़ल जो एक क़लाम थी, जो किसी को मेरा सलाम थी,
मेरे दिल के दश्त को छोड़ कर जाने कौन देस में बस गई!
वो तेरा ख़ुलूस थी, प्यार थी, तेरी रहमतों की फुहार थी;
मेरे प्यासे खेतों को छोड़ कर, जो समंदरों पे बरस गई।
कभी धूप थी,कभी रात थी, ये हयात कैसी हयात थी!
कभी फूल बन के महक गई, कभी ज़हर बन के जो डस गई।
दर-ओ-दरीचा
जहां ये उम्र कटी ,घर नहीं मकान था वो।
किये थे उसने इशारे,मगर न समझा दिल,
कि मैं ज़मीन से कमतर था; आसमान था वो।
थे उसके साथ ज़माने के मीडिया वाले,
मेरा गवाह फक़त सच; सो बेज़ुबान था वो।
वो खो गया तो मेरी बात कौन समझेगा?
उसे तलाश करो- मेरा हमज़बान था वो।
जो ज़िंदगी के हर इक इम्तिहां में फ़ेल हुआ
सही तो ये है ज़माने का इम्तिहान था वो
Sunday, July 27, 2008
दवा-ए-दर्द-ए-दिल
किसी के दुख में शामिल हों,किसी मुफ़लिस के घर जायें।
ये शेख़-ओ-बिरहमन का दौर है; इसमें यही होगा
कि मस्जिद और शिवालों की वजह से घर बिखर जायें।
रहे हम अपनी हद में सब्र से ,तो क्या हुआ हासिल?
चलो अब ये भी कर देखें; चलो हद से गुज़र जायें।
ये शंकर के मुरीदों की कतारें काँवरों वाली,
कभी रोज़ी की ख़ातिर भी तो सड़कों पर उतर जायें।
इधर मंदिर, उधर मस्जिद; इधर ज़िन्दाँ उधर सूली,
ख़िरदमंदों की बस्ती में जुनूँ वाले किधर जायें ।
यूं तो
फिर भी सब लोग परेशान बहुत हैं साहब॥
कर्ज़माफ़ी के इनामों से इमरजेन्सी तक,
होठ सी देने के सामान बहुत हैं साहब।
वो भी सूली लिये फिरते हैं मगर हम सब की,
ईसा के भेस में शैतान बहुत हैं साहब।
ऐसी ग़ज़लों का प्रकाशन तो बहुत मुश्किल है;
आरती लिखिये, क़दरदान बहुत हैं साहब।
जल्द ही होंगे इलेक्शन मेरा दिल कहता है;
हाकिम-ए-वक़्त मेहरबान बहुत हैं साहब ।
धुंध और कोहरे
झर गया पतझर,नय मधुमास मुस्काने लगा।
राह भी आगे की काफी साफ अब दिखने लगी;
रौशनी सूरज पुन: अविराम बरसाने लगा।
थी ख़बर नोकीले करवाये हैं सब हिरनों ने सींग;
भेड़िया मंदिर में जा पहुंचा-भजन गाने लगा॥
घर के अंदर व्यक्तिगत दुख था हिमालय से बड़ा;
घर से निकले तो वही राई नज़र आने लगा॥
जेठ की तपती दुपहरों ने किया विद्रोह तो
एयरकण्डीशण्ड कमरों मे धुआं जाने लगा॥
ज़िन्दगी दर्द की
हमसे रूठी हुई तक़दीर रहेगी कब तक ।
रंग तो लायेंगी मज़लूम की आहें आख़िर;
ज़ुल्म के हाथ में शमशीर रहेगी कब तक।
दार पर चढ़ के भी मक़तूल यही कहता रहा-
बेअसर ख़ून की तासीर रहेगी कब तक।
चोट इक और,फिर इक और,फिर इक और ऐ दोस्त!
ये तेरे पांव की ज़ंजीर रहेगी कब तक!
दौर आयेगा बग़ावत का तो बंदापरवर!
मुल्क में आपकी जागीर रहेगी कब तक!
राम के मंदिर
बन गया मन्दिर तो चकले बंद हो जायेंगे क्या!!
कितने लव-कुश धो रहे हैं आज भी प्लेट-ओ-गिलास;
दूध थोड़ा, कुछ खिलौने-उनको मिल पायेंगे क्या!
चीमटा,छापा,तिलक,तिरशूल,गांजे की चिलम-
रहनुमा-ए-मुल्क अब इस भेस में आयेंगे क्या!
रख सकेंगे क्या अंगूठे को बचा कर एकलव्य;
रामजी के राज में शंबूक जी पायेंगे क्या!
अस्पतालों,और सड़कों, और नहरों के लिये,
बोलिये तो कारसेवा आप करवायेंगे क्या!
पानी
किसी के प्यासे लबों को तरस गया पानी।
पुकारते रहे मीलों तलक,पता न मिला;
न जाने कौन सी बस्ती में बस गया पानी!
फ़सल की प्यास के मौके पे हो गया रूपोश;
फ़सल पकी तो अचानक बरस गया पानी।
वो और होंगे मिला जिनको हो के आब-ए-हयात,
हमें तो नाग की मानिंद डस गया पानी।
सिवाय चश्म-ए-ग़रीबां कहीं नमी न रही;
जला उमीद का जंगल,झुलस गया पानी।
घात प्रतिघात में
हर खुराफ़ात में रहो प्यारे।
बात जो हो कभी न कहने की,
बात ही बात में कहो प्यारे।
कह दिया दूसरों से- ‘पहले आप’।
यूं न जज़बात में बहो प्यारे।
अपनी छतरी थमा दी औरों को;
क्यूं न बरसात में रहो प्यारे।
रोटियाँ! वो भी मान-आदर से!
अपनी औक़ात में रहो प्यारे।
Saturday, July 26, 2008
लीजिये अंततः सफल
आपसे दूर होके हम विश्व के पास हो गये।
उनको सुनाई जब कभी हमने ह्रदय की वेदना,
उनके भी नयन बह चले;हम भी उदास हो गये।
वो भी समय था हास के जब हम अगाध स्रोत थे;
ये भी समय है लुप्त जब सारे ही हास हो गये।
कैसी पवन विचित्र यह उपवन में देखिये चली,
सारे सुगंधिमय सुमन दाहक पलास हो गये।
आपका नाम जब कभी कर्ण कुहर में पड़ गया
बुझी सी द्रष्टि में कई विद्युत विकास हो गये॥
बस में बैठे
भूला नहीं छोड़ कर गांव शहर जाना
कभी समन्दर की तूफ़ानों की बातें;
और कभी हल्की रिमझिम से डर जाना
बाग़ कट चुके,खेतों में सड़कें दौड़ीं;
कैसा गाँव कहां छुट्टी में घर जाना
किसने लिख दी जीवन की ये परिभाषा!
ज़िन्दा रहने की कोशिश में मर जाना
कैसा कठिन सफ़र होता है,पूछो मत,
शाम ढले बेरोज़गार का घर जाना
Thursday, July 24, 2008
मुर्गा
बाजरे के दाने,
ठंडा पानी;
और चारो तरफ
दड़बे की जालीदार दीवारें-
जिनके पीछे से
सारा संसार बंदी लगता है।
(हां! आकाश में उड़ता बाज भी)
न सियार का भय है,
न बिल्ली का।
मुर्गी भी साथ है।
हां!
कभी-कभी दहशत सी तो होती है-
जब कोई हाथ
(पता नहीं किसका)
अचानक
एक या कुछ को,
उठा ले जाता है-
न जाने कहां!
और फिर मिलते हैं
कुछ ही पल बाद,
ज़ायका बदलने को,
ताज़ा गोश्त के कुछ छिछड़े!
(जिनसे लिपटे लहू की गंध
कुछ पहचानी सी लगती है)
नहीं जानता-
किसका है ये हाथ।
(जान कर करना भी क्या है?)
बस इतना पता है-
कि यही हाथ देता है
किनकी,बाजरा,पानी;
और स्वादिष्ट छिछड़े।
तभी तो!
ये हाथ
जब भी पिंजड़े में आया-
मैनें
इस पर न चोंच मारी,
न पंजे।
बस!
दड़बे के किसी कोने में
दुबक गया।
भोर
प्रसवासन्न चेतना।
पीड़ा के पल,
प्रतीक्षा के पल,
कितने लम्बे हैं?
पर अँधेरा छंटने लगा है।
कुछ साये
जमा हो रहे हैं
धुँधलके में।
उनके कन्धों पर
हल है या हथौड़ा;
गारे का तसला है,
या साहब का सूट्केस!
साफ़-साफ़ कुछ नहीं दिखता।
ये घुटन,ये उमस,
ये बेचैनी
क्यों है?
क्षितिज पर
ये बादल हैं,
या खादी के परदे!
जिन्होंने रोक रखा है रास्ता
गुनगुनी धूप का।
ये कसमसाहट कैसी है?
कैसा है ये असमंजस?
एक पल मन करता है
भरकी रजाई में
फिर से सो जाने को।
तो दूसरे ही पल
मचलता है
नहाने को
रोशनी के झरने में।
उठो भी!
परदे हटा दो।
खिड़कियां ही नहीं
दरवाज़े भी खोलो।
बाहर तो निकलो!
ओस भीगी दूब,
खिलखिलाते फूल,
बुलबुल के गीत,
और ताज़ा हवा-
सब तुम्हें बुलाते हैं।
जब वो दूर
सचमुच बहुत याद आता है।
इसका कोई नाम नहीं है;
जाने ये कैसा नाता है?
बादल पकी हुई फ़सलों पर,
ओले क्यों बरसा जाता है?
नफ़रत की आदत है मन को;
प्यार मिले- घबरा जाता है।
कैसा पागल रिक्शे वाला;
रिक्शे पर ही सो जाता है!
Tuesday, July 22, 2008
टूटे यूं संबंध सत्य से
ठोकर खाते-खाते आख़िर हम भी दुनियादार हो गये॥
बचपन से सुनते आये थे
सच को आंच नहीं आती है।
पर अब देखा-सच बोलें तो,
दुनिया दुश्मन हो जाती है॥
सत्यम वद, धर्मम चर के उपदेश सभी बेकार हो गये।
ठोकर खाते-खाते………….
खण्डित हुई सभी प्रतिमाएं;
अब तक जिन्हें पूजते आए।
जिस हमाम में सब नंगे हों,
कौन भला किससे शरमाए?
बेचा सिर्फ़ ज़मीर और सुख-स्वप्न सभी साकार हो गये।
ठोकर खाते-खाते…………….
गिद्धों के गिरोह में जबसे
हमने अपना नाम लिखाया।
लोग मरे दुर्भिक्षों में पर,
हमने सदा पेट भर खाया॥
कितने दिन नाक़ारा रहते;हम भी इज़्ज़तदार हो गये।
ठोकर खाते-खाते…………….
वो मेरे बच्चों को
और उसका बेटा वहीं खोमचा लगाता था॥
जो सबको धूप से, बरसात से बचाता था ।
खुद उसके सर पे फ़क़त आसमाँ का छाता था।
भटक गया हूं जहां मैं – कभी उसी वन से,
सुना तो है कि कोई रास्ता भी जाता था॥
सियाह रात थी, और आँधियाँ भी थीं; लेकिन
उन्हीं हवाओं में एक दीप टिमटिमाता था ॥
उसे पड़ोसी बहुत नापसन्द करते थे।
वो रात में भी उजालों के गीत गाता था॥
इक नई दास्तां
आप सुन लें तो मेहरबानी है॥
हमको तक़दीर से तो कुछ न मिला
अब तो तदबीर आज़मानी है।
उफ़ ये हालात! कौन कहता है
प्रोमथियस की कथा पुरानी है?
ज़िन्दगी बा सुकून ओ बा ईमान
आंधियों में शमा जलानी है।
कौन बाँटे यहां किसी का दर्द?
सबकी आँखों में आज पानी है।
ज़िन्दगी की किताब मुश्किल है।
किसने समझी है;किसने जानी है?
हर अक़ीदा फ़िज़ूल बात; मगर-
बात तो बात है- निभानी है॥
Monday, July 21, 2008
मुक्तक
मानिये मत यूँ धुएं से हार बंधु ;
देखिये है रोशनी उस पार बंधु।
रक्त का झरना बहा सर से तो क्या,
ज़ुल्म की भी हिल चली दीवार बंधु॥
(2)
रवाँ हों अश्क लबों पर हँसी नज़र आये;
चिता की लौ में नई ज़िन्दगी नज़र आये।
क़दम क़दम पे फ़रिश्तों की भीड़ मिलती है;
कभी कहीं तो कोई आदमी नज़र आये॥
(3)
बुझा दे प्यास समन्दर में वो लहर तो नहीं;
ये कँकरीट का जंगल कोई शहर तो नहीं।
जिन्हें है दिन के उजालों से इश्क, उनके लिये,
शब-ए-विसाल भी शब ही तो है,सहर तो नहीं॥
Sunday, July 20, 2008
अगस्त 91
मानसरोवर की सीमाएं,
बढ़ते-बढ़ते कभी किसी दिन,
इस दलदल को भी छू लेंगी;
और हमारा यह दलदल भी,
मानसरोवर बन जाएगा।
जहाँ मुक्ति का कमल
खिलेगा निर्मल जल में।
मख्खी,मच्छर,जोंक –
तिरोहित हो जाएँगे;
सारे हँस चुगेंगे मोती;
सारी धरती-
उनका अभयारण्य बनेगी।
किन्तु हमारे
उस सपने का
यह कैसा परिणाम हुआ है!
दलदल की सीमाएं
मानसरोवर को ही
निगल गई हैं।
मख्खी,मच्छर,जोंक-
मुदित हैं, निष्कण्टक हैं।
लेकर तीर कमान
अहेरी घूम रहे हैं।
करना है आखेट
उन्हें सारे हंसों का;
तब ही तो अभिषेक
गिद्ध का कर पायेंगे ।
और स्वप्नदर्शी हम जैसे
जाने कितने!
भग्नह्रदय!स्तब्ध!
सभी कुछ देख रहे हैं।
मन में है संताप;
भावनायें आहत हैं।
तो क्या
वे सारे सपने
म्रृगमरीचिका थे?
क्या
यह दुर्गन्धित दलदल
ही परम सत्य है?
मन करता है
प्रश्न।
बुद्धि उत्तर देती है-
नहीं! नहीं!
यह बात नहीं है;
बात और है-
मानसरोवर की रक्षा
में चूक हुई है।
हँस चले थे
गिद्धों का आलिंगन करने;
फिर तो जो कुछ हुआ
सहज स्वाभाविक ही था।
परजीवी बगुले
जब हँसों की कतार में
घुस आये-
तो मानसरोवर लुटना ही था।
सच तो यह है-
सीमाओं के मिलने भर से
दलदल शुद्ध नहीं होते हैं;
उलटे मानसरोवर
दूषित हो जाते हैं।
बनी रहे अनवरत चौकसी,
होते रहें प्रयास निरन्तर;
तभी सुनिश्चित होगी
उनकी सतत सुरक्षा।
सच तो यह है-
हर दलदल के
निवासियों की-
अपनी पीड़ाएं होती हैं।
अपने ही सुख-दुख होते हैं;
अपनी क्रीड़ाएं होती हैं।
अपने परजीवी होते हैं;
अपनी सीमाएं होती हैं।
इन तथ्यों के सागर-मंथन
से ही वह अमृत मिलता है-
जो दलदल को मानसरोवर
कर देता है।–
मानसरोवर-
जिसमें
मुक्ति-कमल खिलता है।
राजा लिख
फिर से वही कहानी लिख॥
बैठ किनांरे लहरें गिन।
दरिया को तूफ़ानी लिख॥
गोलीबारी में रस घोल।
रिमझिम बरसा पानी लिख॥
राम-राज के गीत सुना।
हिटलर की क़ुरबानी लिख॥
राजा को नंगा मत बोल।
परजा ही बौरानी लिख॥
फ़िरदौसी के रस्ते चल।
मत कबीर की बानी लिख॥
Saturday, July 19, 2008
कोई साँसों में
और फिर जा के जाने कहाँ खो गया।
एक बच्चा मुझे देख कर हँस दिया;
आज का मेरा दिन तो ग़ज़ल हो गया।
दिल को मालूम था तुम चले जाओगे
चन्द लमहों को फिर भी बहल तो गया।
उसके गिरने का चर्चा सभी ने किया
ये न देखा कि गिर के सँभल तो गया।
आबले पाँव के हमकदम हो गये;
ज़िन्दगी का सफ़र कुछ सहल हो गया।
जिस्म और जान
दीन ओ ईमान बिक चुके होंगे।
इन दिनों मण्डियों में रौनक है;
खेत खलिहान बिक चुके होंगे।
मन्दिरों मस्जिदों के सौदे में
राम ओ रहमान बिक चुके होंगे।
कँस बेख़ौफ़ घूमता है अब ,
क्रष्ण भगवान बिक चुके होंगे।
ताजिरों का निज़ाम है; इसमें
सारे इन्सान बिक चुके होंगे।
Friday, July 18, 2008
बेवतन फ़कीरों से
इनको तो भटकना है, इनसे दोस्ताना क्या?
दर्द कह के क्या कीजे, दर्द सबकी दौलत है;
दर्द सब समझते हैं दर्द का सुनाना क्या?
ख़ामशी के सहरा में गुफ़्तगू पे पहरे हैं;
फिर सवाल क्या करना,पूछना बताना क्या?
दर्द तो मुसलसल है, इसमें कब तलक रोएं!
हर ख़ुशी को जाना है, इसमें मुस्कराना क्या?
तुम तो जानते थे सब;तुमसे कह के क्या करते!
ग़ैर ग़ैर ही तो था; ग़ैर को बताना क्या?
दूर का मसला
बाढ़ का पानी सरों तक आ रहा है।
आग माना दूर है, लेकिन धुआं तो,
इन सुहाने मंज़रों तक आ रहा है।
लद चुके दिन चूड़ियों के,मेंहदियों के;
फावड़ा कोमल करों तक आ रहा है।
मंदिरों से हट के अब मुद्दा बहस का
जीविका के अवसरों तक आ रहा है।
इसने कुछ इतिहास से सीखा नहीं है;
एक प्यासा सागरों तक आ रहा है।
Thursday, July 17, 2008
उसने कभी भी
उसने कभी भी पीर पराई सुनी नहीं .
कितना भला किया कि बुराई सुनी नहीं.
रोटी के जमा-ख़र्च में ही उम्र कट गई,
हमने कभी ग़ज़ल या रुबाई सुनी नहीं .
औरों की तरह तुमने भी इलज़ाम ही दिये;
तुमने भी मेरी कोई सफाई सुनी नहीं.
बच्चों की नर्सरी के खिलौने तो सुन लिए;
ढाबे में बर्तनों की धुलाई सुनी नहीं.
मावस की घनी रात का हर झूठ रट लिया;
सूरज की तरह साफ सचाई सुनी नहीं.
शरीक तेरे
मैं तुझसे दूर मगर तेरी ज़िन्दगी में रहा।
जो दर्द आंख से ढल कर रुका लबों के करीब,
तमाम उम्र वो शामिल मेरी हँसी में रहा।
समन्दरों में मेरी तशनगी को क्या मिलता?
मैं अब्र बन के पलट आया फिर नदी में रहा।
वो जिनकी नज़र-ऐ-इनायत पे लोग नाज़ां थे,
बहुत सुकून मुझे उनकी बेरुखी़ में रहा।
वो मेरा साया अंधेरों में गुम हुआ है तो हो;
यही बहुत है मेरे साथ रोशनी में रहा.
चिड़िया के बच्चे
और उड़ चले।
कुछ तेज़ी से उड़े;
आगे निकले;और बनाया
एक नया नीड़;
फिर से लिखने को-
वही पुरातन चिर कथा.
कुछ के पंख
इतने सशक्त न थे.
आंधी-वर्षा से जूझते
वे जा गिरे धरती पर-
और ग्रास बने –
व्यालों बिलावों के.
कुछ करते रहे जतन ,
नीड़ के निर्माण का.
रहे खोजते कोई सशक्त डाल
छाया और आश्रय को.
कुछ को मिली;
कुछ को नहीं मिली.
सबका था अपना-अपना
जीवन-समर;
अपने-अपने नीड़,
अपनी-अपनी डाल;
अपने-अपने व्याल.
पर एक तथ्य
उन सबकी गाथा में साझा था.
उनमें से कोई भी
पुराने नीड़ पर नहीं लौटा.